Friday, July 27, 2018

BHARAT BHAGLA 1947


BHARAT VIBHAJAN KE KHAS KARAN NICHE LIKHE HE  :


विभाजन किसी देश की भूमि का ही नहीं होता, विभाजन लोगों की भावनाओं का भी होता है। विभाजन का दर्द वो ही अच्छी तरह जानते हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से इसको सहा है। बंटवारे के दौरान ‍जिन्हें अपना घर-बार छोड़ना पड़ा, अपनों को खोना पड़ा...यह दर्द आज भी उन्हें सालता रहता है। भारत-पाकिस्तान, उत्तर- 'दक्षिण कोरिया और जर्मनी का विभाजन आम लोगों के लिए काफी त्रासदीपूर्ण रहा।

आजादी के सुनहरे भविष्य के लालच में देश की जनता ने विभाजन का जहरीला घूंट पी लिया, लेकिन इस प्रश्न का जवाब आज तक नहीं मिल पाया कि क्या भारत का बंटवारा इतना ही जरूरी था? आखिर ऐसे क्या कारण थे, जिनकी वजह से देश दो टुकड़ों में बंट गया। यूं तो ऐसे कई कारण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन यहां हम खास 10 बड़े कारणों का उल्लेख कर रहे हैं....

अंग्रेजों की कपटपूर्ण CHAL :

हिंदुस्तान की धरती पर ब्रिटिश हूकूमत का यह अंतिम और बहुत ही शर्मनाक कार्य था। अंग्रेजों के लिए यह स्वाभाविक ही था कि भारत छोड़ने के बाद भी भारत से उन्हें अधिक से अधिक लाभ मिल सके इसलिए ऐसी योजनाएं बनाई और उसे लागू किया। इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था कि भारत को इससे कितना नुकसान होगा। इसलिए उन्होंने 'फूट डालों' की नीति के अलावा आजादी की शर्तों के तहत उन्होंने शिक्षा, सैन्य और आर्थिक नीति को भी कपटपूर्ण तरीके से लागू कराया गया।

विभाजन की इस योजना ने भारत को जितनी क्षति पहुंचाई उतनी दूसरी कम ही चीजों ने पहुंचाई होगी। अंत में उन्होंने इस समझौते पर भी दस्तखत कराएं कि हमारे जाने के बाद हमारे मनाए स्मारक और मूर्तियों को किसी भी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचाई जाएगी और इनका संवरक्षण किया जाएगा।

क्या गांधी और नेहरू के बीच की दूरियों ने तोड़ दिया देश को ?

गांधी और नेहरू के बीच कई बातों को लेकर मतभेद थे। सन् 1945 तक गांधी का युग खत्म होकर नेहरू का युग शुरू हो गया था तब गांधी एक तरह से हाशिए में चले गए थे, लेकिन देश में जनता उन्हें चाहती थी। दोनों के बीच के विचारों में मतभेद की वजह से दुरियां बढ़ने लगी थी।

1890 के दशक से ही कांग्रेस के स्तंभ मोतीलाल नेहरू ही जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस में लेकर आए थे। तब नेहरू तीस की उम्र के करीब थे और वे गांधी से बहुत प्रभावित थे। लेकिन जब उनके विचार विकसित हुए तो उनमें और गांधी में वैचारिक मतभेद शुरू हो गए।

गांधी नेहरू पर भरोसा करते रहे कि वह वयस्क राजनीतिक मुद्दे उनके समक्ष नहीं उठाएंगे। लेकिन गांधी के प्रिय होने की वजह से नेहरू यह मान कर चल रहे थे कि वह कांग्रेस की अगुआई करने और आजादी के बाद देश पर राज करने में अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ देंगे। और, ऐसे उन्होंने किया भी। उन्होंने गांधीजी के एक भी सुझावों को नहीं माना।

नेहरू और पटेल का एकाधिकारवादी मनोवृत्ति-

राजनीतिक नेता के तौर पर नेहरू की पहली असली परीक्षा की घड़ी 1937 के चुनावों के समय आई। अब वह गांधी के सहायक नहीं थे, जो 1934 के बाद नेपथ्य में चले गए थे। चुनावों में कांग्रेस की जीत और उसकी प्रथम क्षेत्रीय सरकारों के गठन के साल में वह कांग्रेस के अध्यक्ष थे।

चुनाव परिणामों को लेकर शेखी बघारते हुए नेहरू ने घोषणा की कि भारत में महत्व रखने वाली अब दो ही शक्तियां हैं: कांग्रेस और अंग्रेज सरकार। इसमें जरा भी शक नहीं कि खुद को धोखा देने वाले घातक अंदाज में उन्हें इस बात पर भरोसा भी था। दरअसल यह एक इकबालिया जीत थी।

कांग्रेस का सदस्यत्व 97 फीसदी हिंदू था। भारत भर के लगभग 90 फीसदी मुसलमान संसदीय क्षेत्रों में उसे खड़े होने के लिए मुसलमान उम्मीदवार तक नहीं मिले। कांग्रेस ने सभी हिंदू सीटें जीत ली थीं। मगर एक भी मुस्लिम सीट वह हासिल नहीं पर पाई थी। कांग्रेस और मुस्लिम लीग में ताल्लुकात खराब नहीं थे लेकिन जब मुस्लिम लीग का कांग्रेस के गठजोड़ की बात उठी तो नेहरू ने बड़ी रुखाई से विलय की बात रखी।

इस जीत से नेहरू के भीतर एकाधिकारवादी मनोवृत्ति का जन्म हो चुका था। और वे दूसरों के सपने को छोड़ अपने सपनों का भारत बनाने की सोचते लगे थे। इसी के चलते नेहरू का महात्मा गांधी से ही नहीं मोहम्मद अली जिन्नाह, सरदार पटेल और बाबा आम्बेडकर से भी कई मामलों में मतभेद था।

एक समय ऐसा आया जबकि आम्बेडकर ने नेहरू को एकाधिकारवादी बताया था।

कांग्रेस के नेताओं की बढ़ती उम्र और राजनीतिक खालीपन...

जिन्नाह का नेता बनना : दूसरा विश्व युद्ध छिड़ जाने पर कांग्रेस आलाकमान ने भारत की जनता से पूछे बिना वायसराय द्वारा जर्मनी के खिलाफ जंग छेड़ देने के विरोध में सभी प्रांतीय सरकारों को इस्तीफा देने का निर्देश दिया। इसका तुरंत असर यह हुआ कि एक राजनीतिक खालीपन तैयार हो गया जिसमें जिन्ना ने बड़ी दृढ़ता से अपने पैर जमा दिए।

वह इस बात से बाखबर थे कि अपने सबसे महत्त्वपूर्ण साम्राज्य में लंदन को रियाया की वफादारी दिखाने की बेहद जरूरत थी। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के अंत को ‘हश्र का दिन’ घोषित कर उन्होंने बिना समय खोए ब्रिटेन की मुश्किल घड़ी में उसके प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया और उसके बदले में युद्धकालीन अनुग्रह हासिल कर लिया।

लेकिन उनके सामने काम मुश्किल था। अब तक वह मुस्लिम लीग के निर्विवाद नेता बन चुके थे। मगर उपमहाद्वीप की दूर-दूर तक बिखरी हुई मुस्लिम अवाम बिलकुल एकजुट न थी। बल्कि वह पहेली के उन टुकड़ों की तरह थी जिन्हें साथ मिलाकर कभी एक नहीं किया जा सकता।

मुस्लिम लीग की सफलता को नहीं रोक पाना...
ऐतिहासिक तौर पर मुस्लिमलीग का सांस्कृतिक और राजनीतिक हृदय स्थल उत्तरप्रदेश में था, जहां लीग सबसे ज्यादा मजबूत स्थिति में थी बावजूद इसके कि एक तिहाई से भी कम आबादी मुसलमान थी।

सुदूर पश्चिम में सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती प्रांत में मुस्लिम जबर्दस्त रूप से बहुलता में थे। मगर अंग्रेजों के कब्जे में वे काफी बाद में आए और इस वजह से वे इलाके देहाती पिछड़े हुए क्षेत्र थे, जहां उन स्थानीय नामी-गिरामियों का वर्चस्व था जो न उर्दू जबान बोलते थे और न लीग के प्रति कोई वफादारी रखते थे और न ही लीग की उन इलाकों में कोई सांगठनिक मौजूदगी थी।

पंजाब और बंगाल में, जो भारत के संपन्नतम प्रांत थे और एक दूसरे से काफी दूर स्थित थे, मुसलमान बहुसंख्यक थे। पंजाब में उनका संख्याबल जरा ही अधिक था मगर बंगाल में अधिक मजबूत था। इन दोनों ही प्रांतों में लीग की बहुत प्रभावशाली शक्ति नहीं थी। पंजाब में वह नगण्य थी। यूनियनिस्ट पार्टी जिसका पंजाब प्रांत पर नियंत्रण था, बड़े मुस्लिम जमींदारों और संपन्न हिंदू जाट किसानों का गठबंधन था और इन दोनों ही धड़ों के सेना से संबंध मजबूत थे और वे अंग्रेजी राज के प्रति वफादार भी थे।

बंगाल में,जहां लीग के नेता प्रांत के पूर्वी हिस्से में बड़ी रियासतों के मालिक कुलीन जमींदार थे। राजनीतिक प्रभाव केपीपी (कृषक प्रजा पार्टी)का था जिसका आधार आम किसान वर्ग था। इस तरह प्रांतीय स्तर पर पर्यवेक्षक जहां भी नजर डालते, मुस्लिम लीग कमजोर नजर आती थी।

हिंदू बहुल इलाकों में उसे कांग्रेस ने सत्ता से परे रखा हुआ था और मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में उसे उसके विरोधी संगठनों ने उपेक्षित कर रखा था। अखिल भारतीय स्तर पर मुस्ल्मि लीग की कोई साख न होने के बावजूद जीवट के साथ काम कर सकने वाले एकमात्र मुस्लिम नेता के तौर पर जिन्ना की प्रतिष्ठा ने लीग को बचा लिया। फिर धीरे-धीरे जिन्ना ने वक्त के तकाजे को देखते हुए कांग्रेस में हुए खालीपन का फायदा उठाया और अपना जनाधार बढ़ा लिया।

Age padneke liye next update ka wait kre.

Thank you...❤️

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